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अता॑रिष्म॒ तम॑सस्पा॒रम॒स्य प्रति॑ वां॒ स्तोमो॑ अश्विनावधायि। एह या॑तं प॒थिभि॑र्देव॒यानै॑र्वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

atāriṣma tamasas pāram asya prati vāṁ stomo aśvināv adhāyi | eha yātam pathibhir devayānair vidyāmeṣaṁ vṛjanaṁ jīradānum ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अता॑रिष्म। तम॑सः। पा॒रम्। अ॒स्य। प्रति॑। वा॒म्। स्तोमः॑। अ॒श्वि॒नौ॒। अ॒धा॒यि॒। आ। इ॒ह। या॒त॒म्। प॒थिऽभिः॑। दे॒व॒ऽयानैः॑। वि॒द्याम॑। इ॒षम्। वृ॒जन॑म्। जी॒रऽदा॑नुम् ॥ १.१८३.६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:183» मन्त्र:6 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:29» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:24» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अश्विनौ) शिल्पविद्याव्यापी सज्जनो ! जैसे (इह) यहाँ (वाम्) तुम दोनों का (स्तोमः) स्तुति योग्य व्यवहार (अधायि) धारण किया गया वैसे तुम्हारे (प्रति) प्रति हम (अस्य) इस (तमसः) अन्धकार के (पारम्) पार को (अतारिष्म) तरें पहुँचें, जैसे हम (इषम्) इच्छासिद्धि (वृजनम्) बल और (जीरदानुम्) जीवन को (विद्याम) प्राप्त होवें वैसे तुम दोनों (देवयानैः) विद्वान् जिन मार्गों से जाते उन (पथिभिः) मार्गों से हम लोगों को (आ, यातम्) प्राप्त होओ ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - जो अतीव शिल्पविद्यावेत्ता जन हों वे ही नौकादि यानों से भू, समुद्र और अन्तरिक्ष मार्गों से पार-अवर लेजा-लेआ सकते हैं, वे ही विद्वानों के मार्गों में अग्नि आदि पदार्थों से बने हुए विमान आदि यानों से जाने को योग्य हैं ॥ ६ ॥इस सूक्त में विद्वानों की शिल्पविद्या के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह एकसौ तिरासीवाँ सूक्त और ऊनतीसवाँ वर्ग और चतुर्थाऽध्याय समाप्त हुआ ॥इस अध्याय में जन्म, पवन, इन्द्र, अग्नि, अश्वि और विमानादि यानों के गुणों का वर्णन आदि होने से इस अध्याय के अर्थ की पिछले अध्याय के अर्थ के साथ सङ्गति समझनी चाहिये ॥ ।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां परमविदुषां श्रीमद्विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण परमहंसपरिव्राजकाचार्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना निर्मिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्ते ऋग्वेदभाष्ये द्वितीयाऽष्टकस्य चतुर्थाऽध्यायः समाप्तः ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे अश्विनौ यथेह वां स्तोमोऽधायि तथा वां प्रत्यस्य तमसः पारमतारिष्म यथा वयमिषं वृजनं जीरदानुं विद्याम तथा युवां देवयानैः पथिभिरस्मानायातम् ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अतारिष्म) तरेम (तमसः) रात्रेः प्रकाशरहितस्य समुद्रस्य वा (पारम्) परतटम् (अस्य) (प्रति) (वाम्) युवयोर्युवां वा (स्तोमः) श्लाघ्यो व्यवहारः (अश्विनौ) शिल्पविद्याव्यापिनौ (अधायि) (आ) (इह) (यातम्) (पथिभिः) (देवयानैः) देवा यान्ति येषु तैः (विद्याम) (इषम्) (वृजनम्) (जीरदानुम्) ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - हे शिल्पविद्यावित्तमा भवेयुस्त एव नौकादियानैर्भूसमुद्रान्तरिक्षमार्गैः पारावारौ गमयितुं शक्नुवन्ति त एव विद्वन्मार्गेष्वऽग्न्यादियानैर्गन्तुं योग्या इति ॥ ६ ॥अस्मिन् सूक्ते विद्वच्छिल्पविद्यागुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥इति त्र्यशीत्युत्तरं शततमं सूक्तमेकोनत्रिंशो वर्गश्चतुर्थोऽध्यायश्च समाप्तः ॥अस्मिन्नध्याये जन्ममरुदिन्द्राऽग्न्यश्विविमानादियानगुणवर्णनादेतदध्यायार्थस्य पूर्वाऽध्यायार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे शिल्पविद्यावेत्ते असतील तेच नावा इत्यादी यानांनी भू, समुद्र व अंतरिक्ष मार्गाने दूर व जवळ जाऊ शकतात, तेच विद्वानांच्या मार्गाने अग्नी इत्यादी पदार्थांनी युक्त असलेल्या विमान इत्यादी यानांनी जाण्यायोग्य असतात. ॥ ६ ॥